.png)
भारत की बढ़ती जनसंख्या के बीच एक राहतभरी खबर
बढ़ती जनसंख्या की चिंता करने वालों के लिए यह संभवत:
एक राहत देनेवाली खबर हो सकती है। इक्कीसवीं सदी में जनसंख्या वृद्धि पर संयुक्त राष्ट्र के एक अध्ययन का विश्लेषण करके स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी ने भारत के बारे में आंकड़ा जारी किया है कि इक्कीसवीं सदी में भारत की जनसंख्या बढने की बजाय घटेगी। इस सदी के आखिर तक यानी 2100 तक भारत की जनसंख्या वर्तमान में एक अरब 40 करोड़ से घटकर एक अरब तक पहुंच जाएगी। ऐसा संभव होगा भारत में घटते प्रजनन दर की वजह से। 2100 तक भारत में प्रजनन दर वर्तमान के 2 से घटकर 1.19 पहुंच जाएगा। इसकी वजह से अगले 70-80 सालों में भारत की जनसंख्या बढने की बजाय 40 करोड़ घट जाएगी
यह उन लोगों के लिए राहत की बात हो सकती है जो बढती जनसंख्या को एक समस्या मान बैठे हैं। हमारे मन में एक बात स्वाभाविक रूप से बैठ गयी है कि हमारी सबसे बड़ी समस्या हमारी बढती जनसंख्या है। सूचना संचार के इस युग में हम सबको पता है कि किस देश की जनसंख्या कितनी है। हम ऐसा मानने लगे हैं कि जिस देश या राज्य की जनसंख्या जितनी कम होती है वह उतना सुखी और समृद्ध होता है।
लेकिन क्या सचमुच ऐसा होता है?
क्या कम आबादी किसी देश के सुख की गारंटी होता है?
फिर कम या अधिक आबादी का वास्तविक पैरामीटर क्या होता है?
आखिर बढती जनसंख्या हमें समस्या नजर क्यों आती है?
ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब खोजने का प्रयास हम कभी नहीं करते। पूरी दुनिया आज यूरोपीय औद्योगीकरण के प्रभाव में है। पूरब के वो देश भी जो सभ्यतागत रूप से कभी यूरोप से ज्यादा प्रभावित नहीं होना चाहते थे, आज वो भी यूरोप के विकास मॉडल को ही विश्व का सर्वश्रेष्ठ मॉडल मानते हैं। वरना पूरब की सभ्यताएं मानती रही हैं कि धरती पर आबादी ईश्वरीय रचना है। पूरब का व्यक्ति उसमें बहुत हस्तक्षेप करने से बचता है। उसके लिए बच्चे ईश्वर की देन हुआ करते थे। इसको नियंत्रित करने की न तो कभी कोई सोच यहां रही और न ही इस दिशा में किसी प्रकार की तकनीकि विकसित की गयी। लेकिन यूरोप के औद्योगिक विकास ने मानव को भी एक प्रकार का संसाधन माना और उसने इसकी सीमारेखा निर्धारित करना शुरु कर दिया। ठीक वैसे ही जैसे प्रकृति में जो कुछ है यूरोप उसका आंकलन और सीमांकन करता है। यूरोप द्वारा मानव विकास सूचकांक (Human development index) के जो मानक तय किये जाते हैं उसमें औद्योगिक उत्पादन के वितरण तथा प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता को आधार बनाया जाता है। इन्हीं आधारों पर पश्चिम की कथित वैश्विक संस्थाएं (जिसमें वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ, संयुक्त राष्ट्र की अलग अलग संस्थाएं) पूरी दुनिया को ये बताती हैं कि कैसे बढती जनसंख्या प्राकृतिक संसाधनों पर बोझ की तरह है। इसलिए उनका अगला तर्क ये होता है कि इस बोझ को कम करने के लिए जरूरी है कि जनसंख्या वृद्धि को कम किया जाए।
लेकिन इन वैश्विक संस्थाओं की सोच और गणना दोनों दोषपूर्ण है। वर्ल्डबैंक, आईएमएफ या यूएन की संस्थाएं जो तर्क देती है उसमें मानव उपभोग की जरूरतें भी वही तय करती हैं। इन जरूरतों को अपनी सुविधा और बाजार की जरूरतों के मुताबिक घटती बढती रहती है। जैसे एक समय था जब टीवी फ्रिज भी ह्यूमन डेवलपमेन्ट इंडेक्स का हिस्सा हुआ करता था। यानी जिस मनुष्य को टीवी देखने और फ्रिज का पानी पीने की सुविधा मिलती है वह इन लोगों के द्वारा एक विकसित मनुष्य घोषित कर दिया जाता था। हो सकता है किसी दिन एसी और एयर प्यूरिफॉयर को भी एचडीआई में जोड़ दिया जाए कि जिनके पास ये चीजें हैं वह विकसित मनुष्य है।
Amerika k kisi bhi kathan par vishwas karna murkhatapurn hai..pura vishwa iska parinam dekh raha hai aur aage bhi dekhega... isliye bharat ko apne hisab se karya karna chahiye aur jansankhya niyantran kanun lana chahiye.
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